आर्यभट्ट:एक महान गणितज्ञ, ज्योतिषविद् व खगोलशास्त्री
भारत के इन महान वैज्ञानिक का जन्म महाराष्ट्र के अश्मक देश में 476 ई. में हुआ था। उन्होंने अपने आर्यभट्टीय नामक ग्रन्थ में कुल 3 पृष्ठों के समा सकने वाले 33 श्लोकों में गणितविषयक सिद्धान्त तथा 5 पृष्ठों में 75 श्लोकों में खगोल-विज्ञान विषयक सिद्धान्त तथा इसके लिये यन्त्रों का भी निरूपण किया।
आर्यभट के लिखे तीन ग्रंथों की जानकारी आज भी उपलब्ध है। दशगीतिका, आर्यभटीय और तंत्र।
लेकिन जानकारों के अनुसार उन्होने और एक ग्रंथ लिखा था- 'आर्यभट्ट सिद्धांत'। इस समय उसके केवल ३४ श्लोक ही उपलब्ध हैं। उनके इस ग्रंथ का सातवे शतक में व्यापक उपयोग होता था। लेकिन इतना उपयोगी ग्रंथ लुप्त कैसे हो गया इस विषय में कोई निश्चित जानकारी नहीं मिलती।
आर्यभटीय के एक श्लोक में आर्यभट जानकारी देते हैं कि उन्होंने इस पुस्तक की रचना कुसुमपुर में की है और उस समय उनकी आयु 23 साल की थी। वे लिखते हैं : ''कलियुग के 3600 वर्ष बीत चुके हैं और मेरी आयु 23 साल की है, जबकि मैं यह ग्रंथ लिख रहा हूं।''
भारतीय ज्योतिष की परंपरा के अनुसार कलियुग का आरंभ ईसा पूर्व 3101 में हुआ था। इस हिसाब से 499 ईस्वी में आर्यभटीय की रचना हुई। अत: आर्यभट का जन्म 476 में होने की बात कही जाती है।
आर्यभट्ट सिद्धांत प्रसिद्ध भारतीय गणितज्ञ आर्यभट्ट की लिखि पुस्तक थी। आज इसके मात्र ३४ श्लोक ही उपलब्ध हैं। अपनी वृद्धावस्था में आर्यभट्ट ने आर्यभट्ट सिद्धांत के नाम से लिखी। यह दैनिक खगोलीय गणना और अनुष्ठानों के लिए शुभ मुहूर्त निश्चित करने के काम आती थी। आज भी पंचांग बनाने के लिए आर्यभट्ट की खगोलीय गणनाओं का उपयोग किया जाता है।
आर्यभटीय नामक ग्रन्थ संस्कृत भाषा में आर्या छंद में काव्यरूप में रचित गणित तथा खगोलशास्त्र का ग्रंथ है। इसकी रचनापद्धति बहुत ही वैज्ञानिक और भाषा बहुत ही संक्षिप्त तथा मंजी (गूड) है। इसमें चार अध्यायों में १२३ श्लोक हैं। चार अध्याय इस प्रकार है :
1. दशगीतिकापाद:- ब्रह्माण्ड की काल गणनाओ, ग्रहों की गति आदि का समावेश
2. गणितपाद :- खगोलीय अचर (astronomical constants) तथा ज्या-सारणी (sine table) ; गणनाओं के लिये आवश्यक गणित, वर्गमूल, घनमूल, सामानान्तर श्रेणी तथा विभिन्न प्रकार के समीकरणों का वर्णन
3. कालक्रियापाद :- समय विभाजन तथा ग्रहों की स्थिति की गणना के लिये नियम
4. गोलपाद :- त्रिकोणमितीय समस्याओं के हल के लिये नियम; ग्रहण की गणना
पश्चिम में 15वीं सदी में गैलीलियों के समय तक धारणा रही कि पृथ्वी स्थिर है तथा सूर्य उसका चक्कर लगाता है परन्तुआर्यभट्ट ने 4थी सदी में ही भूमि अपने अक्ष पर घूमती है, इसका विवरण निम्न प्रकार से दिया :-
अनुलोमगतिनौंस्थ: पश्यत्यचलम्
विलोमंग यद्वत्।
अचलानि भानि तद्वत् सम
पश्चिमगानि लंकायाम्॥
आर्यभट्टीय गोलपाद-९
अर्थात्
नाव में यात्रा करने वाला जिस प्रकार किनारे पर स्थिर रहने वाली चट्टान, पेड़ इत्यादि को विरुद्ध दिशा में भागते देखता है, उसी प्रकार अचल नक्षत्र लंका में सीधे पूर्व से पश्चिम की ओर सरकते देखे जा सकते हैं।
भ पंजर: स्थिरो भू रेवावृत्यावृत्य प्राति दैविसिकौ।
उदयास्तमयौ संपादयति नक्षत्रग्रहाणाम्॥
अर्थात्
तारा मंडल स्थिर है और पृथ्वी अपनी दैनिक घूमने की गति से नक्षत्रों तथा ग्रहों का उदय और अस्त करती है।
भूमि गोलाकार होने के कारण विविध नगरों में रेखांतर होने के कारण अलग-अलग स्थानों में अलग-अलग समय पर सूर्योदय व सूर्यास्त होते हैं। इसे आर्यभट्ट ने ज्ञात कर लिया था |
उदयो यो लंकायां सोस्तमय:
सवितुरेव सिद्धपुरे।
मध्याह्नो यवकोट्यां रोमक
विषयेऽर्धरात्र: स्यात्॥
(आर्यभट्टीय गोलपाद-१३)
अर्थात्
जब लंका में सूर्योदय होता है तब सिद्धपुर में सूर्यास्त हो जाता है। यवकोटि में मध्याह्न तथा रोमक प्रदेश में अर्धरात्रि होती है।
आर्यभट्ट ने सूर्य से विविध ग्रहों की दूरी के बारे में बताया है। वह आजकल के माप से मिलता-जुलता है।
आज पृथ्वी से सूर्य की दूरी लगभग 15 करोड़ किलोमीटर मानी जाती है। इसे AU ( Astronomical unit) कहा जाता है। इस अनुपात के आधार पर निम्न सूची बनती है।
आर्यभट्ट ने पाइ (Pi) के मान पर भी कार्य किया, . आर्यभटीय के दूसरे भाग (गणितपाद 10) में, वे लिखते हैं:
आर्यभट ने आधुनिक त्रिकोणमिति और बीजगणित की कई विधियों की खोज की थी।
इस महान खगोलशास्त्री के नाम पर ही भारत द्वारा प्रक्षेपित पहले कृत्रिम उपग्रह का नाम आर्यभट्ट रखा गया था। 360 किलो का यह उपग्रह अप्रैल 1975 में छोड़ा गया था।
ध्यान रखने की बात है कि भारत में आर्यभट नाम के एक दूसरे ज्योतिषी भी हुए हैं, परंतु वे पहले आर्यभट जैसे प्रसिद्ध नहीं हैं। दूसरे आर्यभट का काल ईसा की दसवीं सदी माना जाता है तथा आर्यसिद्धांत नामक उनका एक ग्रंथ भी मिलता है।
अधिक जानकारी के लिए देखे:
http://hi.wikipedia.org/wiki/आर्यभट
http://hi.wikipedia.org/wiki/आर्यभटीय
https://sites.google.com/site/ekatmatastotra/stotra/scientists/aryabhat
आर्यभट के लिखे तीन ग्रंथों की जानकारी आज भी उपलब्ध है। दशगीतिका, आर्यभटीय और तंत्र।
लेकिन जानकारों के अनुसार उन्होने और एक ग्रंथ लिखा था- 'आर्यभट्ट सिद्धांत'। इस समय उसके केवल ३४ श्लोक ही उपलब्ध हैं। उनके इस ग्रंथ का सातवे शतक में व्यापक उपयोग होता था। लेकिन इतना उपयोगी ग्रंथ लुप्त कैसे हो गया इस विषय में कोई निश्चित जानकारी नहीं मिलती।
आर्यभटीय के एक श्लोक में आर्यभट जानकारी देते हैं कि उन्होंने इस पुस्तक की रचना कुसुमपुर में की है और उस समय उनकी आयु 23 साल की थी। वे लिखते हैं : ''कलियुग के 3600 वर्ष बीत चुके हैं और मेरी आयु 23 साल की है, जबकि मैं यह ग्रंथ लिख रहा हूं।''
भारतीय ज्योतिष की परंपरा के अनुसार कलियुग का आरंभ ईसा पूर्व 3101 में हुआ था। इस हिसाब से 499 ईस्वी में आर्यभटीय की रचना हुई। अत: आर्यभट का जन्म 476 में होने की बात कही जाती है।
आर्यभट्ट सिद्धांत प्रसिद्ध भारतीय गणितज्ञ आर्यभट्ट की लिखि पुस्तक थी। आज इसके मात्र ३४ श्लोक ही उपलब्ध हैं। अपनी वृद्धावस्था में आर्यभट्ट ने आर्यभट्ट सिद्धांत के नाम से लिखी। यह दैनिक खगोलीय गणना और अनुष्ठानों के लिए शुभ मुहूर्त निश्चित करने के काम आती थी। आज भी पंचांग बनाने के लिए आर्यभट्ट की खगोलीय गणनाओं का उपयोग किया जाता है।
आर्यभटीय नामक ग्रन्थ संस्कृत भाषा में आर्या छंद में काव्यरूप में रचित गणित तथा खगोलशास्त्र का ग्रंथ है। इसकी रचनापद्धति बहुत ही वैज्ञानिक और भाषा बहुत ही संक्षिप्त तथा मंजी (गूड) है। इसमें चार अध्यायों में १२३ श्लोक हैं। चार अध्याय इस प्रकार है :
1. दशगीतिकापाद:- ब्रह्माण्ड की काल गणनाओ, ग्रहों की गति आदि का समावेश
2. गणितपाद :- खगोलीय अचर (astronomical constants) तथा ज्या-सारणी (sine table) ; गणनाओं के लिये आवश्यक गणित, वर्गमूल, घनमूल, सामानान्तर श्रेणी तथा विभिन्न प्रकार के समीकरणों का वर्णन
3. कालक्रियापाद :- समय विभाजन तथा ग्रहों की स्थिति की गणना के लिये नियम
4. गोलपाद :- त्रिकोणमितीय समस्याओं के हल के लिये नियम; ग्रहण की गणना
पश्चिम में 15वीं सदी में गैलीलियों के समय तक धारणा रही कि पृथ्वी स्थिर है तथा सूर्य उसका चक्कर लगाता है परन्तुआर्यभट्ट ने 4थी सदी में ही भूमि अपने अक्ष पर घूमती है, इसका विवरण निम्न प्रकार से दिया :-
अनुलोमगतिनौंस्थ: पश्यत्यचलम्
विलोमंग यद्वत्।
अचलानि भानि तद्वत् सम
पश्चिमगानि लंकायाम्॥
आर्यभट्टीय गोलपाद-९
अर्थात्
नाव में यात्रा करने वाला जिस प्रकार किनारे पर स्थिर रहने वाली चट्टान, पेड़ इत्यादि को विरुद्ध दिशा में भागते देखता है, उसी प्रकार अचल नक्षत्र लंका में सीधे पूर्व से पश्चिम की ओर सरकते देखे जा सकते हैं।
भ पंजर: स्थिरो भू रेवावृत्यावृत्य प्राति दैविसिकौ।
उदयास्तमयौ संपादयति नक्षत्रग्रहाणाम्॥
अर्थात्
तारा मंडल स्थिर है और पृथ्वी अपनी दैनिक घूमने की गति से नक्षत्रों तथा ग्रहों का उदय और अस्त करती है।
भूमि गोलाकार होने के कारण विविध नगरों में रेखांतर होने के कारण अलग-अलग स्थानों में अलग-अलग समय पर सूर्योदय व सूर्यास्त होते हैं। इसे आर्यभट्ट ने ज्ञात कर लिया था |
उदयो यो लंकायां सोस्तमय:
सवितुरेव सिद्धपुरे।
मध्याह्नो यवकोट्यां रोमक
विषयेऽर्धरात्र: स्यात्॥
(आर्यभट्टीय गोलपाद-१३)
अर्थात्
जब लंका में सूर्योदय होता है तब सिद्धपुर में सूर्यास्त हो जाता है। यवकोटि में मध्याह्न तथा रोमक प्रदेश में अर्धरात्रि होती है।
आर्यभट्ट ने सूर्य से विविध ग्रहों की दूरी के बारे में बताया है। वह आजकल के माप से मिलता-जुलता है।
आज पृथ्वी से सूर्य की दूरी लगभग 15 करोड़ किलोमीटर मानी जाती है। इसे AU ( Astronomical unit) कहा जाता है। इस अनुपात के आधार पर निम्न सूची बनती है।
ग्रह | आर्यभट्ट का मान | वर्तमान मान |
बुध | 0.375 एयू | 0.387 एयू |
शुक्र | 0.725 एयू | 0.723 एयू |
मंगल | 1.538 एयू | 1.523 एयू |
गुरु | 4.16 एयू | 4.20 एयू |
शनि | 9.41 एयू | 9.54 एयू |
आर्यभट्ट ने पाइ (Pi) के मान पर भी कार्य किया, . आर्यभटीय के दूसरे भाग (गणितपाद 10) में, वे लिखते हैं:
चतुराधिकम सतमासअगु अमद्वासास इस्त्तथा सहस्रं अयुतादवायाविसकमभाष्यसन्नोवृत्तापरी अहा.इसके अनुसार व्यास और परिधि का अनुपात ((४ + १०० ) × ८ + ६२००० ) / २०००० = ३.१४१६ है, जो पाँच महत्वपूर्ण आंकडों तक बिलकुल सटीक है.
"१०० में चार जोड़ें, आठ से गुणा करें और फिर ६२००० जोड़ें. इस नियम से २०००० परिधि के एक वृत्त का व्यास ज्ञात किया जा सकता है. "
आर्यभट ने आधुनिक त्रिकोणमिति और बीजगणित की कई विधियों की खोज की थी।
इस महान खगोलशास्त्री के नाम पर ही भारत द्वारा प्रक्षेपित पहले कृत्रिम उपग्रह का नाम आर्यभट्ट रखा गया था। 360 किलो का यह उपग्रह अप्रैल 1975 में छोड़ा गया था।
ध्यान रखने की बात है कि भारत में आर्यभट नाम के एक दूसरे ज्योतिषी भी हुए हैं, परंतु वे पहले आर्यभट जैसे प्रसिद्ध नहीं हैं। दूसरे आर्यभट का काल ईसा की दसवीं सदी माना जाता है तथा आर्यसिद्धांत नामक उनका एक ग्रंथ भी मिलता है।
अधिक जानकारी के लिए देखे:
http://hi.wikipedia.org/wiki/आर्यभट
http://hi.wikipedia.org/wiki/आर्यभटीय
https://sites.google.com/site/ekatmatastotra/stotra/scientists/aryabhat
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