शिवलिंग (Shivlinga)
शिवलिंग : शिवलिंग के बारे में लोगों को इतनी ज्यादा भ्रांतियां हैं और वो भी उसके नाम को लेकर !! लोग आज कल जो उसका मतलब निकालते हैं वो यहाँ मैं नहीं कह सकता क्योंकि उस भ्रान्ति का प्रचार हम नहीं करना चाहते।
सबसे पहली बात संस्कृत में "लिंग" का अर्थ होता है प्रतीक।
Penis या जननेंद्रि के लिए संस्कृत में एक दूसरा शब्द है - "शिश्न".
शिवलिंग भगवान् के निर्गुण-निराकार रूप का प्रतीक है। भगवान् का वह रूप जिसका कोई आकार नहीं जिसमे कोई गुण ( सात्विक,राजसिक और तामसिक ) नहीं है , जो पूरे ब्रह्माण्ड का प्रतीक है और जो शून्य-अवस्था का प्रतीक है। ध्यान में योगी जिस शांत शून्य भाव को प्राप्त करते हैं, जो इश्वर के शांत और परम-आनंद स्वरुप का प्रतीक है उसे ही शिवलिंग कहते हैं।
शिवलिंग में दूध अथवा जल की धारा चढ़ाने से अपने आप मन शांत हो जाता है ये हम सबका अनुभव है, और इसके पीछे मनोवैज्ञानिक कारण भी हैं। जो सच्चे ब्राह्मण हैं वो इस बात को जानते हैं कि शिवलिंग पर जल या दूध चढाते समय "ॐ नमः शिवाय " बोलने की अपेक्षा केवल "ॐ ॐ " बोलना उत्तम है. शिव अभिषेक करते समय उसमे भगवान् शंकर के सगुण-साकार रूप का ध्यान भी किया जा सकता है, किया जाता भी है. भक्त की भावना के अनुसार सबको छूट है इसी कारण आपने देखा होगा कि बाकी मंदिरों में मूर्ति का स्पर्श वर्जित होता है पर शिवलिंग का हर कोई स्पर्श कर सकता है (स्त्रियाँ पूरे महीने स्पर्श नहीं कर सकतीं).
शिवलिंग को भगवान् शंकर का निर्गुण प्रतीक माना जाता है और भगवान् के सगुण रूप का वास कैलाश पर्वत पर माना गया है. ( कुछ लोग बेहेस करते हैं कि भगवान् केवल कैलाश में ही है क्या ?? आदि आदि ; तो भाई सुनो - जैसे भगवान् ने गीता में कहा है कि " पौधों में मै तुलसी हूँ ", " गायों में मै कामधेनु हूँ ", "तीर्थों में मै प्रयाग हूँ " आदि आदि. इसका मतलब ये है कि जो सबसे पवित्र चीज़ हो उसमे इश्वर का वास मानना चाहिए फिर धीरे धीरे आप सब जगह भगवान् को देख पाएंगे। पहले आप मित्र में इश्वर को देखोगे तभी बाद में शत्रु में देख सकोगे ) तो कैलाश में भगवान् को जल मिल जाए , हमारा चढ़ाया हुआ दूध उनको वहां मिल जाए , उसके लिए शिवलिंग के चारों तरफ "जल - घेरी " बनाई जाती है। जल-घेरी की दिशा हमेशा उत्तर दिशा की तरफ होनी चाहिए जिससे हमारा चढ़ाया हुआ दूध या जल सीधा उन तक पहुँच जाए।
और इसी कारण जल-घेरी को कभी लांघते नहीं हैं और शिवलिंग की आधी परिक्रमा ही करते हैं। सावन में जल लगातार भगवान् को चढ़ता रहे इसी कारण शिवलिंग के ऊपर जल से भरा हुआ कलश लटकाया जाता है.
जलघेरी पर कभी दिया नहीं जलाते और शिवलिंग या तुलसी या किसी भी मूर्ती को दिए की आंच नहीं लगनी चाहिये. दिया थोडा सा दूर जलाना होता है। शिवलिंग पर चढ़ाया हुआ नारियल कभी फोड़ा नहीं जाता उसे विसर्जित कर दिया जाता है।
शिवलिंग भगवान् शंकर का प्रतीक होने के कारण उसे तुलसी के नीचे नहीं रखा जाता , तुलसी के नीचे शालिग्राम ( भगवान् विष्णु का निर्गुण रूप ) रखा जाता है. हालांकि शिवलिंग में मंजरी (तुलसी के फूल) चढ़ाए जाते हैं।
सबसे पहली बात संस्कृत में "लिंग" का अर्थ होता है प्रतीक।
Penis या जननेंद्रि के लिए संस्कृत में एक दूसरा शब्द है - "शिश्न".
शिवलिंग भगवान् के निर्गुण-निराकार रूप का प्रतीक है। भगवान् का वह रूप जिसका कोई आकार नहीं जिसमे कोई गुण ( सात्विक,राजसिक और तामसिक ) नहीं है , जो पूरे ब्रह्माण्ड का प्रतीक है और जो शून्य-अवस्था का प्रतीक है। ध्यान में योगी जिस शांत शून्य भाव को प्राप्त करते हैं, जो इश्वर के शांत और परम-आनंद स्वरुप का प्रतीक है उसे ही शिवलिंग कहते हैं।
शिवलिंग में दूध अथवा जल की धारा चढ़ाने से अपने आप मन शांत हो जाता है ये हम सबका अनुभव है, और इसके पीछे मनोवैज्ञानिक कारण भी हैं। जो सच्चे ब्राह्मण हैं वो इस बात को जानते हैं कि शिवलिंग पर जल या दूध चढाते समय "ॐ नमः शिवाय " बोलने की अपेक्षा केवल "ॐ ॐ " बोलना उत्तम है. शिव अभिषेक करते समय उसमे भगवान् शंकर के सगुण-साकार रूप का ध्यान भी किया जा सकता है, किया जाता भी है. भक्त की भावना के अनुसार सबको छूट है इसी कारण आपने देखा होगा कि बाकी मंदिरों में मूर्ति का स्पर्श वर्जित होता है पर शिवलिंग का हर कोई स्पर्श कर सकता है (स्त्रियाँ पूरे महीने स्पर्श नहीं कर सकतीं).
शिवलिंग को भगवान् शंकर का निर्गुण प्रतीक माना जाता है और भगवान् के सगुण रूप का वास कैलाश पर्वत पर माना गया है. ( कुछ लोग बेहेस करते हैं कि भगवान् केवल कैलाश में ही है क्या ?? आदि आदि ; तो भाई सुनो - जैसे भगवान् ने गीता में कहा है कि " पौधों में मै तुलसी हूँ ", " गायों में मै कामधेनु हूँ ", "तीर्थों में मै प्रयाग हूँ " आदि आदि. इसका मतलब ये है कि जो सबसे पवित्र चीज़ हो उसमे इश्वर का वास मानना चाहिए फिर धीरे धीरे आप सब जगह भगवान् को देख पाएंगे। पहले आप मित्र में इश्वर को देखोगे तभी बाद में शत्रु में देख सकोगे ) तो कैलाश में भगवान् को जल मिल जाए , हमारा चढ़ाया हुआ दूध उनको वहां मिल जाए , उसके लिए शिवलिंग के चारों तरफ "जल - घेरी " बनाई जाती है। जल-घेरी की दिशा हमेशा उत्तर दिशा की तरफ होनी चाहिए जिससे हमारा चढ़ाया हुआ दूध या जल सीधा उन तक पहुँच जाए।
और इसी कारण जल-घेरी को कभी लांघते नहीं हैं और शिवलिंग की आधी परिक्रमा ही करते हैं। सावन में जल लगातार भगवान् को चढ़ता रहे इसी कारण शिवलिंग के ऊपर जल से भरा हुआ कलश लटकाया जाता है.
जलघेरी पर कभी दिया नहीं जलाते और शिवलिंग या तुलसी या किसी भी मूर्ती को दिए की आंच नहीं लगनी चाहिये. दिया थोडा सा दूर जलाना होता है। शिवलिंग पर चढ़ाया हुआ नारियल कभी फोड़ा नहीं जाता उसे विसर्जित कर दिया जाता है।
शिवलिंग भगवान् शंकर का प्रतीक होने के कारण उसे तुलसी के नीचे नहीं रखा जाता , तुलसी के नीचे शालिग्राम ( भगवान् विष्णु का निर्गुण रूप ) रखा जाता है. हालांकि शिवलिंग में मंजरी (तुलसी के फूल) चढ़ाए जाते हैं।