भारतीय पञ्चाङ्ग (Ancient Indian Calendar System)
भारतीय पञ्चाङ्ग |
(१) स्वायम्भुव मनु काल-स्वायम्भुव मनु काल में सम्भवतः आज के ज्योतिषीय युग नहीं थे। यह व्यवस्था वैवस्वत मनु के काल से आरम्भ हुयी अतः उनसे सत्ययुग का आरम्भ हुआ। यदि ब्रह्मा से आरम्भ होता तो ब्रह्मा आद्य त्रेता में नहीं, सत्य युग के आरम्भ में होते। अथवा सत्ययुग पहले आरम्भ हो गया, पर सभ्यता का विकास काल त्रेता कहा गया। ब्रह्मा की युग व्यवस्था में युग पाद समान काल के थे जैसा ऐतरेय ब्राह्मण के ४ वर्षीय गोपद युग में या स्वायम्भुव परम्परा के आर्यभट का युग है। वर्ष का आरम्भ अभिजित् नक्षत्र से होता था, जिसे बाद में कार्त्तिकेय ने धनिष्ठा नक्षत्र से आरम्भ किया। कार्त्तिकेय काल में (१५८०० ई.पू.) यह वर्षा काल था। स्वायम्भुव मनु काल में यह उत्तरायण का आरम्भ था। किन्तु दोनों व्यवस्थाओं में माघ मास से ही वर्ष का आरम्भ होता था। मासों का नाम पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा के नक्षत्र से था, जो आज भी चल रहा है। मास का आरम्भ दोनों प्रकार से था-अमावास्या से या पूर्णिमा से। यह अयन गति के अन्तर के कारण बदलता होगा जैसा विक्रमादित्य ने महाभारत के ३००० वर्ष बाद शुक्ल पक्ष के बदले कृष्ण पक्ष से मासारम्भ कर दिया। दिन का आरम्भ भी कई प्रकार से था जैसा आज है। कई बार लिखा है कि वर्ष की प्रथम रात्रि कब थी।
कई प्रकार के वर्ष आरम्भ-शतं जीव शरदो वर्धमानः शतं हेमन्तांछतमुवसन्तान्॥ (ऋक १०/१६१/४, अथर्व २०/९६/९)
एष ह संवत्सरस्य प्रथमा रात्रिर्या फाल्गुनी पूर्णमासी॥ (शतपथ ब्राह्मण ६/२/२/१८)-रात्रि. फाल्गुन, पूर्णमासी से वर्ष का आरम्भ।
फाल्गुन्यां पौर्णमास्यां चातुर्मास्यानि प्रयुञ्जीत। मुखं वा एतत् संवत्सरस्य यत् फाल्गुनी पौर्णमासी। (गोपथ ब्राह्मण ६/१९)
अमावास्यया मासान्संपाद्याहरुत्सृजन्ति अमावास्या हि मासान् संपश्यति पौर्णमास्या मासान्संपाद्यहरुत्सृजन्ति पौर्णमास्या हि मासान् संपश्यति। (तैत्तिरीय संहिता ७/५/६/१)
छन्दों की अक्षर संख्या-गायत्री ६ x ४, उष्णिक् ७ x ४, अनुष्टुप् ८ x ४, बृहती ९ x ४, पंक्ति १० x ४, त्रिष्टुप् ११ x ४, जगती १२ x ४
(२) ध्रुव पञ्चाङ्ग-ध्रुव को स्वायम्भुव मनु का पौत्र कहा गया है, किन्तु उनमें कुछ अधिक अन्तर होगा। भागवत, विष्णु पुराणों के अनुसार ध्रुव को परम पद मिला तथा उनके चारों तरफ सप्तर्षि भ्रमण से काल गणना शुरु हुई। उस काल से ८१०० वर्ष का ध्रुव संवत्सर शुरु हुआ जिसका तीसरा चक्र ३०७६ ई.पू. में पूर्ण हुआ। ध्रुव काल ३ x ८१०० + ३०७६ = २७,३७६ ई.पू हुआ। कुंवरलाल जैन ने अपूर्ण वंशावली के आधार पर पृथु तक की काल गणना की है। संवत्सरों के अनुसार इसके २ आधार हो सकतेहैं-स्वायम्भुव से वैवस्वत मनु तक के काल को ६ भाग में बांटने पर १-१ मन्वन्तर का काल आयेगा। यह प्रायः १५,२००/६ = २५३४ वर्ष होगा। यह सप्तर्षि वत्सर के निकट है, अतः २७०० वर्ष का सप्तर्षि चक्र तथा उसका ३ गुणा ध्रुव वर्ष लेना अधिक उचित है। ध्रुव काल के वर्णन में प्रायः २७०० वर्ष का लघु-मन्वन्तर तथा ८१०० वर्ष का कल्प हो सकता है। १९२७६ ई.पू. में क्रौञ्च द्वीप का प्रभुत्व था जिसपर बाद में कार्त्तिकेय ने आक्रमण किया।
(३) कश्यप-१७५०० ई.पू. में देव-असुरों की सभ्यता आरम्भ हुई। तथा राजा पृथु काल में पर्वतीय क्षेत्रों को समतल बना कर खेती, नगर निर्माण आदि हुये। खनिजों का दोहन हुआ। इन कालों में नया युग आरम्भ हुआ पर उनका पञ्चाङ्ग स्पष्ट नहीं है।
(४) कार्त्तिकेय पञ्चाङ्ग-पृथ्वी के उत्तर ध्रुव की दिशा अभिजित् से हट गयी थी, अतः १५,८०० ई.पू. में कार्त्तिकेय ने बह्मा की सलाह से धनिष्ठा से वर्ष आरम्भ किया जो वेदाङ्ग ज्योतिष में चलता है।
ऋग् ज्योतिष (३२, ५,६) याजुष ज्योतिष (५-७)
माघशुक्ल प्रपन्नस्य पौषकृष्ण समापिनः। युगस्य पञ्चवर्षस्य कालज्ञानं प्रचक्षते॥५॥
स्वराक्रमेते सोमार्कौ यदा साकं सवासवौ। स्यात्तदादि युगं माघः तपः शुक्लोऽयनं ह्युदक्॥६॥
प्रपद्येते श्रविष्ठादौ सूर्याचन्द्रमसावुदक्। सार्पार्धे दक्षिणार्कस्तु माघश्रवणयोः सदा॥७॥
यह माघ से आरंभ वर्ष ब्रह्मा के समय से था, जब सूर्य का प्रवेश अभिजित् नक्षत्र में होता था। स्वायम्भुव मनु काल में अभिजित् (श्रवण-धनिष्ठा का मध्य श्रविष्ठा) से उत्तरायण होता था, यह २९१०२ ईसा पूर्व में था। प्रायः १६००० ईसा पूर्व में अभिजित् नक्षत्र से उत्तरी ध्रुव दूर हो गया जिसे उसका पतन कहा गया है। तब इन्द्र ने कार्त्तिकेय से कहा कि ब्रह्मा से विमर्श कर काल निर्णय करें-
महाभारत, वन पर्व (२३०/८-१०)-
अभिजित् स्पर्धमाना तु रोहिण्या अनुजा स्वसा। इच्छन्ती ज्येष्ठतां देवी तपस्तप्तुं वनं गता॥८॥
तत्र मूढोऽस्मि भद्रं ते नक्षत्रं गगनाच्युतम्। कालं त्विमं परं स्कन्द ब्रह्मणा सह चिन्तय॥९॥
धनिष्ठादिस्तदा कालो ब्रह्मणा परिकल्पितः। रोहिणी ह्यभवत् पूर्वमेवं संख्या समाभवत्॥१०॥
सूर्य सिद्धान्त, अध्याय १-मासैर्द्वादशभिर्वर्षं दिव्यं तदह उच्यते॥१३॥
सुरासुराणामन्योन्यमहोरात्रं विपर्ययात्। षट् षष्टिसङ्गुणं दिव्यं वर्षमासुरमेव च॥१४॥
(५) विवस्वान् पञ्चाङ्ग-यह वैवस्वत मनु के पिता थे अतः इनका भी काल १३९०२ ई.पू. माना जा सकता है, जिसके बाद १२००० वर्ष का अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी चक्र तथा चैत्र शुक्ल से वर्ष आरम्भ हुये। इसके बाद सूर्य सिद्धान्त के कई संशोधन हुये। मयासुर का संशोधन जल प्रलय के बाद सत्ययुग समाप्ति के अल्प (१२१ वर्ष) बाद रोमकपत्तन में हुआ।
सूर्य सिद्धान्त प्रथम अध्याय-
अल्पावशिष्टे तु कृते मयो नाम महासुरः। रहस्यं परमं पुण्यं जिज्ञासुर्ज्ञानमुत्तमम्॥२॥
वेदाङ्गमग्र्यखिलं ज्योतिषां गतिकारणम्। आराधयन्विवस्वन्तं तपस्तेपे सुदुष्करम्॥३॥
तोषितस्तपसा तेन प्रीतस्तस्मै वरार्थिने। ग्रहाणां चरितं प्रादान्मयाय सविता स्वयम्॥४॥
तस्मात् त्वं स्वां पुरीं गच्छ तत्र ज्ञानम् ददामि ते। रोमके नगरे ब्रह्मशापान् म्लेच्छावतार धृक्॥
(पूना, आनन्दाश्रम प्रति)
शृण्वैकमनाः पूर्वं यदुक्तं ज्ञानमुत्तमम्। युगे युगे महर्षीणां स्वयमेव विवस्वता॥८॥
शास्त्रमाद्यं तदेवेदं यत्पूर्वं प्राह भास्करः। युगानां परिवर्तेन कालभेदोऽत्र केवलम्॥९॥
नवम श्लोक की गूढ़ार्थ-प्रकाशिका टीका में रङ्गनाथ जी ने लिखा है-तथा च कालवशेन ग्रहचारे किञ्चिद्वैलक्ष्यण्यं भवतीति युगान्तरे तत्तदनन्तरं ग्रहचारेषु प्रसाध्य तत्कालस्थित लोकव्यवहारार्थं शास्त्रान्तरमिव कृपालु रुक्तवानिभिनान्त शास्त्राणां वैयर्थ्यम्। एवञ्च मया वर्तमान युगीय सूर्योक्त शास्त्र सिद्धग्रहचारमङ्गीकृत्य सूर्योक्त शास्त्रसिद्धं ग्रहचारं च प्रयोजनाभावादुपेक्ष्य तदुक्तमेवत्यां प्रत्य्पविश्यत इति भावः। एवञ्च युग मध्येऽप्यवान्तर काले ग्रहचारेष्वन्तर दर्शने तत्तत्काले तदन्तरं असाध्य ग्रन्थास्तकाल वर्तमानाभियुक्ताः कुर्वन्ति। तदिदमन्तरं पूर्व ग्रन्थे वीजमित्यामनन्ति। पूर्वग्रन्थानां लुप्तत्वात् सूर्य्यर्षि संवादोऽपीदानीं न दृष्यत इति। तदप्रसिद्धिरागम प्रामाण्याच्च नाशंक्या।
सुरासुराणामन्योन्यमहोरात्रं विपर्ययात्। षट् षष्टिसंगुणं दिव्यं वर्षमासुरमेव च॥१४॥
तद्द्वादशसहस्राणि चतुर्युगमुदाहृतम्। सूर्याब्दसंख्यया द्वित्रिसागरैरयुताहतैः॥१५॥
सन्ध्यासन्ध्यांशसहितं विज्ञेयं तच्चतुर्युगम्। कृतादीनां व्यवस्थेयं धर्मपादव्यवस्थया॥१६॥
युगस्य दशमो भागः चतुस्त्रिद्व्य़ेक संगुणः। क्रमात्कृतयुगादीनां षष्ठांऽशः सन्ध्ययोः स्वकः॥१७॥
युगानां सप्ततिस्सैका मन्वन्तरमिहोच्यते। कृताब्दसङ्ख्या तस्यान्ते सन्धिः प्रोक्तो जलप्लवः॥१८॥
खाभ्रखार्कै (१२०००) हृताः कल्पयाताः समाः शेषकं भागहारात् पृथक् पातयेत्।
यत्तयोरल्पकं तद् द्विशत्या (२००) भजेल्लिप्तिकाद्यं तत् त्रिभिः सायकैः (५)॥
पञ्च पञ्चभूमिः (१५) करा (२) भ्यां हतं भानुचन्द्रेज्यशुक्रेन्दुतुङ्गेष्वृणम्।
इन्दुना (१) दस्रबाणैः (५२) करा (२)भ्यां कृतर्भौमसौम्येन्दुपातार्किषु स्वं क्रमात्। (सिद्धान्त शिरोमणि, भूपरिधि-७,८)
स्वोपज्ञ भाष्य-अत्रोपलब्धिरेव वासना। यद्वर्ष सहस्रषट्कं यावुपचयस्ततोऽपचय इत्यत्रागम एव प्रमाणं नान्यत् कारणं वक्तुं शक्यत इत्यर्थः।
ब्रह्मगुप्त-खखखार्क (१२०००) हृताब्देभ्यो गतगम्याल्पाः खशून्ययमल (२००) हृताः।
लब्धं त्रि (३) सायकं (५) हतं कलाभिरूनौ सदाऽर्केन्दू ॥६०॥
शशिवत् जीवे द्विहतं चन्द्रोच्चे तिथि (१५) हतं तु सितशीघ्रे।
द्वीषु (५२) हतं च बुधोच्चे द्वि (२) कु (१) वेद हतं च पात कुज शनिषु॥६१॥
(ब्राह्मस्फुट सिद्धान्त, सुधाकर द्विवेदी संस्करण, मध्यमाधिकार)
(ग) श्लोक २ में कहा है कि सत्ययुग में अल्प काल बाकी था। पर श्लोक २३ में सत्ययुग के अन्त तक गणना दी गयी है। इसका सम्भावित अर्थ है कि सत्ययुग से कुछ पूर्व मय असुर ने यह सिद्धान्त निकाला पर उसका व्यवहार सत्ययुग की समाप्ति से हुआ।
(घ) प्रति युग में महर्षियों को ही सूर्य ज्ञान देते थे, पर इस बार मय असुर को क्यों ज्ञान दिया? महर्षि केवल भारत या देव जाति में ही नही, वरन् असुरों में भी हो सकते हैं। प्रह्लाद तथा विभीषण को भी परम भागवत कहा गया है। ज्योतिष में विश्व के सभी भागों के स्थानों का विवरण है, जो परस्पर ९०० अंश देशान्तर पर हैं। यह भी दिखाता है कि पूरे विश्व का सहयोग तथा मानचित्र आवश्यक है जिसके बिना चन्द्र तथा अन्य ग्रहों की दूरी नहीं ज्ञात हो सकती।
(ङ) पुराणों में ९०-९० अंश देशान्तर के अन्य स्थानों की चर्चा है, जो इससे पूर्व काल का है।
(च) श्लोक १८ में मन्वन्तर की सन्धि के बाद जल-प्लव लिखा है। मय असुर ने स्पष्टतः सत्ययुग के अन्त में इसका प्रणयन किया जिसके पूर्व सत्ययुग के आरम्भ में जल प्रलय हुआ था। आधुनिक भूगर्भ-शास्त्र के अनुसार प्रायः १०००० ईसा पूर्व में जल-प्रलय हुआ था, जो १०००-१५०० वर्षों तक था।
(छ) सृष्टि निर्माण में श्लोक २४ के अनुसार ४७४०० दिव्य वर्ष लगे। यह अन्य सिद्धान्त ग्रन्थों ब्राह्म-स्फुट-सिद्धान्त या सिद्धान्त-शिरोमणि आदि में वर्णित नहीं है। सम्भवतः जल-प्रलय के आद गणना को ठीक करने के लिये मय असुर द्वारा गणित सूत्र के संशोधन के लिये है, वास्तविक सृष्टि निर्माण काल नहीं है।
(ज) पूरे विश्व में सर्व-सम्मति से सूर्य सिद्धान्त के माप तथा गणित विधियां मानी जाती थीं। मय असुर का संशोधन भी रोमक पत्तन में होने के बावजूद विश्व में स्वीकृत हुआ तथा भारत में अभी भी प्रचलित है। इसके लिये किसी शक्तिशाली राज्य के नेतृत्व में विश्व सम्मेलन अपेक्षित है। विश्व माप के ४ केन्द्र लंका या उज्जैन, उससे ९० अंश दूरी पश्चिम रोमक-पत्तन, १८० अंश पश्चिम या पूर्व सिद्धपुर तथा ९० अंश पूर्व यमकोटिपत्तन थे। जल-प्रलय के तुरत बाद भारत में सभ्यता का पुनः आरम्भ ऋषभदेव जी द्वारा हुआ, जो स्वायम्भुव मनु की तरह आरम्भ कार्य करने के कारण उनके वंशज कहे गये हैं तथा जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर हैं। वायु, मत्स्य, ब्रह्माण्ड आदि पुराणों में २८ व्यासों की गिनती में स्वायम्भुव मनु प्रथम तथा ऋषभदेव ११वें कहे गये हैं।
(झ) १ युग = १२००० वर्ष के बाद पुनः संशोधन की आवश्यकता होगी। क्या पुनः सूर्य का अवतार होगा? रंगनाथ जी के अनुसार नहीं। संशोधन कर्त्ता ही सूर्य का अवतार है।
(६) इक्ष्वाकु काल से भी काल गणना आरम्भ हुई थी। महालिंगम के अनुसार उनका काल १-११-८५७६ ई.पू. चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से हुआ। यह तंजाउर के मन्दिरों की गणना के आधार पर है।
(७) परशुराम पञ्चाङ्ग-६१७७ ई.पू.-परशुराम के निधन पर कलम्ब (कोल्लम्) सम्वत्। परशुराम १९वें त्रेता में थे। यहां १ युग खण्ड ३६० वर्षों का है। त्रेता में १० खण्ड होंगे। प्रथम १० खण्ड विवस्वान् के पूर्व बीत गये। उनके बाद के त्रेता में ११वां खण्ड आरम्भ हुआ, तभी १० से अधिक खण्ड सम्भव हैं। दूसरा त्रेता ९१०२ ई.पू. में आरम्भ हुआ, उसमें ८ त्रेता ९१०२ - ८ x ३६० = ६२२२ ई.पू. में बीते। उससे ३६० वर्षों के भीतर परशुराम का काल है। सहस्र वर्षों को छोड़ने पर ८२४ ई. में कोल्लम सम्वत् आरम्भ हुआ, अतः परशुराम काल ७०००-८२३ में होगा (० वर्ष नहीं गिना जाता है)। इसका अन्य प्रमाण है कि मेगास्थनीज ने सिकन्दर से ६४५१ वर्ष ३ मास पूर्व अर्थात् ६७७७ ई.पू. अप्रैल मास में डायोनिसस का भारत आक्रमण लिखा है जिसमें पुराणों के अनुसार सूर्यवंशी राजा बाहु मारा गया थ। उससे १५ पीढ़ी बाद हरकुलस (विष्णु-पृथ्वी को धरण करने वाला-पृथिवी त्वया धृता लोकाः, देवि त्वं विष्णुना धृता) का जन्म हुआ। इस काल के विष्णु अवतार परशुराम थे। उनका काल प्रायः ६०० वर्ष बाद आता है जो १५ पीढ़ी का काल है। मयासुर के ३०४४ वर्ष बाद ऋतु १.५ मास पीछे खिसक गया था अतः नये सम्वत् का प्रचलन हुआ।
(८) कलि के पञ्चाङ्ग-राम का जन्म ११-२-४४३३ ई.पू. में हुआ था पर उस काल के किसी पञ्चाङ्ग का उल्लेख नहीं है। परशुराम के ३००० वर्ष बाद कलियुग आरम्भ में ही नये पञ्चाङ्ग की आवश्यकता हुयी। युधिष्ठिर काल में ४ प्रकार के पञ्चाङ्ग हुये-(क) युधिष्ठिर शक-यह उनके राज्याभिषेक के दिन १७-१२-३१३९ ई.पू. से हुआ। उसके ५ दिन बाद उत्तरायण माघशुक्ल सप्तमी को हुआ। अतः अभिषेक प्रतिपदा या द्वितीया को था। (ख) कलि सम्वत्-शासन के ३६ वर्ष से कुछ अधिक बीतने पर १७-२-३१०२ ई.पू. उज्जैन मध्यरात्रि से कलियुग आरम्भ हुआ जब भगवान् कृष्ण का देहान्त हुआ। उसके २दिन २-२७-३० घं.मि.से. बाद २०-२-३१०२ ई.पू २-२७-३० घं.मि.से. से चैत्र शुक्ल प्रतिपदा आरम्भ हुआ। (ग) जयाभ्युदय शक-भगवान् कृष्ण के देहान्त के ६ मास ११ दिन बाद २२-८-३१०२ ई.पू. को जब विजय के बाद जय सम्वत्सर आरम्भ हुआ, तो युधिष्ठिर ने अभ्युदय के लिये सन्यास लिया। यह परीक्षित शासन से आरम्भ होता है तथा जनमेजय ने इसी का प्रयोग अपने दान-पत्रों में किया है। (घ) कलि के २५ वर्ष बीतने पर कश्मीर में युधिष्ठिर का देहान्त हुआ जब सप्तर्षि मघा से निकले। उस समय (३०७६ ई.पू. मेष संक्रान्ति) से लौकिक या सप्तर्षि सम्वत्सर आरम्भ हुआ जो कश्मीर में प्रचलित था तथा राजतरङ्गिणी में प्रयुक्त है।
(९) भटाब्द-आर्यभट काल से केरल में भटाब्द प्रचलित था। महाभारत काल में २ प्रकार के सिद्धान्त प्रचलित थे। पराशर मथ तथा आर्य मत। यहां पराशर मत पराशर द्वारा लिखित विष्णुपुराण में है जो मैत्रेय ऋषि ने उनको खण्ड १ तथा २ में कहा है। यह सूर्य सिद्धान्त की परम्परा में है, अतः ऋषि को मैत्रेय (मित्र =सूर्य, सौर वर्ष का प्रथम मास, उत्तरायण से) कहा गया है। द्वितीय मत आर्य मत है जो स्वायम्भुव मनु की परम्परा से था। इसकी परम्परा में कलि के कुछ बाद (३६० वर्ष) आर्यभट ने आर्यभटीय लिखा। विवस्वान् या सूर्य पिता हैं, उनके पूर्व के स्वायम्भुव मनु ब्रह्मा या पितामह हैं। आज भी आर्य (अजा)का अर्थ पटना के निकट तथा ओडिशा आदि में पितामह होता है।
(१०) जैन युधिष्ठिर शक-जिनविजय महाकाव्य का जैन युधिष्ठिर शक ५०४ युधिष्ठिर शक (२६३४ ई.पू.) में आरम्भ होता है। इसके अनुसार कुमारिल भट्ट का जन्म ५५७ ई.पू. (२०७७) क्रोधी सम्वत्सर (सौर मत) में तथा शंकराचार्य का निर्वाण ४७७ ई.पू. (२१५७) राक्षस सम्वत्सर में कहा है-
ऋषि(७)र्वार (७)स्तथा पूर्ण(०) मर्त्याक्षौ (२) वाममेलनात्. एकीकृत्य लभेताङ्कख् क्रोधीस्यात्तत्र वत्सरः॥
भट्टाचार्य कुमारस्य कर्मकाण्डैकवादिनः। ज्ञेयः प्रादुर्भवस्तस्मिन् वर्षे यौधिष्ठिरे शके॥
ऋषि(७)र्बाण(५) तथा भूमि(१)र्मर्त्याक्षौ (२) वाममेलनात्, एकत्वेन लभेताङ्कस्तम्राक्षास्तत्र वत्सरः॥ (शंकर निधन)
यह पार्श्वनाथ का संन्यास या निधन काल है। उनका संन्यास पूर्व नाम युधिष्ठिर रहा होगा या वे वैसे ही धर्मराज या तीर्थङ्कर थे। भगवान् महावीर (जन्म ११-३-१९०२ ई.पू.) में पार्श्वनाथ का ही शक चल रहा था। युधिष्ठिर की ८ वीं पीढ़ी में निचक्षु के शासन में हस्तिनापुर डूब गया था- यह सरस्वती नदी के सूखने का परिणाम था। उस समय १०० वर्ष की अनावृष्टि कही गयी है जब दुर्भिक्ष रोकने के लिये शताक्षी या शाकम्भरी अवतार हुआ।
दुर्गा-सप्तशती (११/४६-४९)-
भूयश्च शतवार्षिक्यामनावृष्ट्यामनम्भसि। मुनिभिः संस्तुता भूमौ सम्भविष्याम्ययोनिजा॥४६॥
ततः शतेन नेत्राणां निरीक्षिष्यामि यन्मुनीन्। कीर्तयिष्यन्ति मनुजाः शताक्षीमिति मां ततः॥४७॥
ततोऽहमखिलं लोकमात्मदेहसमुद्भवैः। भरिष्यामि सुराः शाकैरावृष्टेः प्राणधारकैः॥४८॥
शाकम्भरीति विख्यातिं तदा यास्याम्यहं भुवि। तत्रैव च वधिष्यामि दुर्गमाख्यं महासुरम्॥४९॥
विष्णु पुराण (४/२१)-अतः परं भविष्यानहं भूपालान्कीर्तयिष्यामि॥१॥ योऽयं साम्प्रतमवनीपतिः परीक्षित्तस्यापि जनमेजय-श्रुतसेनो-ग्रसेन-भीमसेनश्चत्वारः पुत्राः भविष्यन्ति॥२॥ जनमेजयस्यापि शतानीको भविष्यति॥३॥ योऽसौ याज्ञवल्क्याद्वेदमधीत्य कृपादस्त्राण्यवाप्य विषम-विषय-विरक्त-चित्तवृत्तिश्च शौनकोपदेशादात्म-ज्ञान-प्रवीणः परं निर्वाणमवाप्स्यति॥४॥ शतानीकादश्वमेधदत्तो भविता॥५॥ तस्मादप्यधिसीमकृष्णः॥६॥ अधिसीमकृष्णान्निचक्षुः॥७॥ यो गङ्गयापहृते हस्तिनापुरे कौशाम्ब्यां निवत्स्यति॥८॥
(११) शिशुनाग काल-पाल बिगण्डेट की पुस्तक बर्मा की बौद्ध परम्परा में बुद्ध निर्वाण से अजातशत्रु काल में एक नये वर्ष का आरम्भ कहा गया है (बर्मी में इत्यान = निर्वाण)। इसके १४८ वर्ष पूर्व अन्य वर्ष आरम्भ हुआ था जिसे बर्मी में कौजाद (शिशुनाग?) कहा है। बुद्ध निर्वाण (२७-३-१८०७ ई.पू.) से १४८ वर्ष पूर्व १९५४ ई.पू. में शिशुनाग का शासन समाप्त हुआ।
(१२) नन्द शक-महापद्मनन्द का अभिषेक सभी पुराणों का विख्यात कालमान है। यह परीक्षित जन्म के १५०० (१५०४) वर्ष बाद हुआ था। इसमें १५०० को पार्जिटर ने १०५० कर दिया जिससे कलि आरम्भ को बाद का किया जा सके।खारावेल शिलालेख में भी लिखा है कि नन्द अभिषेक के त्रिवसुशत (८०३) वर्ष के बाद उसके शासन के ४ वर्ष पूर्ण हुये जब उसने प्राची नहर की मरम्मत करायी। यह नन्द काल में बनी थी। यहां ’त्रिवसु शत’ को ’त्रिवर्ष शत’ कर इतिहासकारों ने १०३ या ३००वर्ष आदि मनमाने अर्थ किये हैं।
यावत् परीक्षितो जन्म यावत् नन्दाभिषेचनम् । तावत् वर्ष सहस्रं च ज्ञेयं पञ्चशतोत्तरम् ॥ (विष्णु पुराण, ४/२४/१०४) यहां पञ्चशतोत्तरम् (१५००) को पञ्चाशतोत्तरम् कर दिया है।
आर्यभटीय (१/५)-काहो मनवो ढ, मनुयुगाः श्ख, गतास्ते च, मनुयुगाः छ्ना च।
कल्पादेर्युगपादा ग च, गुरु दिवसाच्च, भारतात् पूर्वम्॥
धूसीकाल (३१७९)-युतः शाकः कल्यब्द इति कीर्तितः॥ (वाक्यकरण, १/२)
गतवर्षान्त कोलम्बवर्षाः तरळगा (३९२६) स्थिताः।
कल्यब्दा धीस्थकाला (३१७९) ढ्याः शकाब्दा वा भवन्ति ते॥ (पुतुमन सोमयाजी, करण पद्धति)
भागवत पुराण (१२/२/३)-यस्मिन् कृष्णो दिवं यातस्तस्मिन्नेव तदाहनि। प्रतिपन्नं कलियुगमिति प्राहुः पुराविदः॥
(१/१५/३७) यदा मुकुन्दो भगवानिमां महीं जहौ स्वतन्त्रा श्रवणीय सत्कथः।
तदाहरे वा प्रतिबुद्धचेतसामधर्महेतुः कलिरन्ववर्तत॥
लल्ल-शिष्यधीवृद्धिदतन्त्र(१/१२)-नवाद्रिचन्द्रानलसंयुतोभवेच्छकक्षितीशाब्दगणो गतः कलेः।
दिवाकरघ्नो गतमाससंयुतः कुवह्निनिघ्नस्तिथिभिः समन्वितः॥
भास्कर-२ (सिद्धान्त शिरोमणि १/२८)-याताः षण्मनवो युगानि भमितान्यन्यद्युगाङ्घ्रित्रयं,
नन्दाद्रीन्दुगुणा (१३७९) स्तथा शकनृपस्यान्ते कलेर्वत्सराः।
(१३) शूद्रक शक-यह ७५६ ई.पू. में आरम्भ हुआ। जेम्स टाड ने सभी राजपूत राजाओं को विदेशी शक मूल का सिद्ध करने के लिये उनकी बहुत सी वंशावलियां तथा ताम्रपत्र आदि नष्ट किये तथा राजस्थान कथा (Annals of Rajsthan) में अग्निवंशी राजाओं का काल थोड़ा बदल कर प्रायः ७२५ ई.पू. कर दिया।काञ्चुयल्लार्य भट्ट-ज्योतिष दर्पण-पत्रक २२ (अनूप संस्कृत लाइब्रेरी, अजमेर एम्.एस नं ४६७७)-
बाणाब्धि गुणदस्रोना (२३४५) शूद्रकाब्दा कलेर्गताः॥७१॥ गुणाब्धि व्योम रामोना (३०४३) विक्रमाब्दा कलेर्गताः॥
इस समय असुर (असीरिया के नबोनासर आदि) आक्रमण को रोकने के लिये ४ प्रमुख राजवंशों का संघ आबू पर्वत पर विष्णु अवतार बुद्ध की प्रेरणा से बना। इन राजाओं को अग्रणी होने के कारण अग्निवंशी कहा गया-परमार, प्रतिहार, चालुक्य तथा चाहमान।
भविष्य पुराण, प्रतिसर्ग पर्व (१/६)-
एतस्मिन्नेवकाले तु कान्यकुब्जो द्विजोत्तमः। अर्बुदं शिखरं प्राप्य ब्रह्महोममथाकरोत्॥४५॥
वेदमन्त्रप्रभावाच्च जाताश्चत्वारि क्षत्रियाः। प्रमरस्सामवेदी च चपहानिर्यजुर्विदः॥४६॥
त्रिवेदी च तथा शुक्लोऽथर्वा स परिहारकः॥४७॥ अवन्ते प्रमरो भूपश्चतुर्योजन विस्तृता।।४९॥
प्रतिसर्ग (१/७)-चित्रकूटगिरिर्देशे परिहारो महीपतिः। कालिंजर पुरं रम्यमक्रोशायतनं स्मृतम्॥१॥
राजपुत्राख्यदेशे च चपहानिर्महीपतिः॥२॥ अजमेरपुरं रम्यं विधिशोभा समन्वितम्॥३॥
शुक्लो नाम महीपालो गत आनर्तमण्डले। द्वारकां नाम नगरीमध्यास्य सुखिनोऽभवत्॥४॥
४ राजाओं का संघ होने के कारण यह कृत संवत् भी कहा जाता है तथा इन्द्राणीगुप्त को सम्मान के लिये शूद्रक कहा गया-शूद्र ४ जातियों का सेवक है। (१४) चाहमान शक-दिल्ली कॆ चाहमान राजा ने ६१२ ईसा पूर्व में असीरिया की राजधानी निनेवे को पूरी तरह ध्वस्त कर दिया, जिसका उल्लेख बाइबिल में कई स्थानों पर है। इसके नष्टकर्त्ता को सिन्धु पूर्व के मधेस (मध्यदेश, विन्ध्य तथा हिमालय के बीच) का शासक कहा गया है।
http://bible.tmtm.com/wiki/NINEVEH_%28Jewish_Encyclopedia%29-
The Aryan Medes, who had attained to organized power east and northeast of Nineveh, repeatedly invaded Assyria proper, and in 607 succeeded in destroying the city
Media-From BibleWiki (Redirected from Medes)-They appear to have been a branch of the Aryans, who came from the east bank of the Indus, …
इस समय जो शक आरम्भ हुआ उसका उल्लेख वराहमिहिर की बृहत् संहिता में है तथा कालिदास, ब्रह्मगुप्त ने भी इसी का पालन किया है। वराहमिहिर-बृहत् संहिता (१३/३)-
आसन् मघासु मुनयः शासति पृथ्वीं युधिष्ठिरे नृपतौ। षड्-द्विक-पञ्च-द्वि (२५२६) युतः शककालस्तस्य राज्ञस्य॥
(१५) श्रीहर्ष शक (४५६ ईसा पूर्व)-इसका उल्लेख अलबरूनि ने किया है। शूद्रक के बाद ३०० वर्ष तक मालवगण चला-जिसे मेगस्थनीज ने ३०० वर्षों का गणराज्य कहा है। लिच्छवी तथा गुप्त राजाओं ने इसका प्रयोग किया है पर इसे निरक्षर इतिहासकारों ने हर्षवर्धन (६०५-६४६ इस्वी) से जोड़ दिया है।
(१६) विक्रम संवत्-५७ ईसा पूर्व में उज्जैन के परमार वंशी राजा विक्रमादित्य (८२ ईसा पूर्व-१९ ईस्वी) ने आरम्भ किया। उनका राज्य (परोक्षतः) अरब तक था तथा जुलिअस सीजर के राज्य में भी उनके संवत् के ही अनुसार सीजर के आदेश के ७ दिन बाद विक्रम वर्ष १० के पौष कृष्ण मास के साथ वर्ष का आरम्भ हुआ।
History of the Calendar, by M.N. Saha and N. C. Lahiri (part C of the Report of The Calendar Reforms Committee under Prof. M. N. Saha with Sri N.C. Lahiri as secretary in November 1952-Published by Council of Scientific & Industrial Research, Rafi Marg, New Delhi-110001, 1955, Second Edition 1992.
Page, 168-last para-“Caesar wanted to start the new year on the 25th December, the winter solstice day. But people resisted that choice because a new moon was due on January 1, 45 BC. And some people considered that the new moon was lucky. Caesar had to go along with them in their desire to start the new reckoning on a traditional lunar landmark.”
यहां बिना गणना के मान लिया गया है कि वर्ष आरम्भ के दिन शुक्ल पक्ष का आरम्भ था, पर वह विक्रम सम्वत् के पौष मास का आरम्भ था। केवल विक्रम वर्ष में ही चान्द्र मास का आरम्भ कृष्ण पक्ष से होता है. बाकी सभी शुक्ल पक्ष से आरम्भ होते हैं। इसी विक्रमादित्य के दरबार में कालिदास, वराहमिहिर आदि ९ रत्न विख्यात थे।
(१७) शालिवाहन शक-विक्रमादित्य के देहान्त के बाद ५० वर्ष तक भारत विदेशी आक्रमणों का शिकार रहा। तब उनके पौत्र शालिवाहन ने उनको पराजित कर सिन्धु के पश्चिम भगा दिया। उनके काल में प्राकृत भाषाओं का प्रयोग राजकार्य में आरम्भ हुआ। इनके काल मॆ ईसा मसीह ने कश्मीर में शरण लिया (हजरत बाल) ।
(१८) कलचुरि या चेदि शक (२४६ इसवी),
(१९) वलभी भंग (३१९ ईस्वी)-गुप्त राजाओं की परवर्त्ती शाखा गुजरात के वलभी में शासन कर रही थी जिसका अन्त इस समय हुआ। निरक्षर इतिहासकार इसके १ वर्ष बाद गुप्त काल का आरम्भ कहते हैं।
सम्वत् आरम्भ करने के लिए तीर्थ का चुनाव किया। कार्तिक मास में समुद्र यात्रा आरम्भ होती थी, अतः कार्तिकादि संवत् समुद्र तट के तीर्थ सोमनाथ से शुरू हुआ। पशुपतिनाथ में शुरू करने के कई कारण हो सकते हैं। वर्ष के खण्डों को पशु कहा गया है। पशुबन्ध यज्ञ का अर्थ है ऋतु अनुसार कृषि और अन्य काम करना। दिन, मास, वर्ष के चक्रों के 4 भाग होते हैं। अतः पशुपतिनाथ के 4 सिर 4 दिशाओं में हैं। इसका एक और अर्थ करते हैं कि हिमालय की 4 देवयोनियां इसकी 4 दिशाओं में हैं-पश्चिम में गुह्यक जो नेपाल का प्राचीन नाम है, पूर्व में भूत (भूटान), उत्तर पूर्व में सिद्ध (लासा की लामा परम्परा), उत्तर पश्चिम में पिशाच (पै शाची लिपि में बृहत्कथा लिखी गई थी।- पिशाचो गुह्यको सिद्धो भूतोऽमी देवयोनयः (अमरकोष)। उज्जैन के महाकाल में भी उपयुक्त स्थान था जो प्राचीन विश्व की मुख्य देशान्तर रेखा थी। इसी लिए उसे महाकाल कहते हैं। पर विक्रमादित्य ने गुह्यक क्षेत्र में तपस्या कर सिद्धि पायी थी, जिसके बाद वे राजा बने। स्पष्टतः उनकी राजनीतिक शक्ति का स्रोत वहां पर था।