वर्ण और जाति का भेद

भारतीय समाज का विभक्ति करण वर्ण और जाति आधारित है, इसके लिए किसी साक्छ्य की जरूरत नहीं क्योंकि आज की परिस्थिति में यह एक सारभोम्य सत्य है । लेकिन आइये यह जानने का प्रयास करते हैं कि भारतीय समाज में वर्ण और जाति में आखिर भेद क्या है ? कैसे कभी कभी ये दोनों एक दुसरे का रूप लेते और प्रतिरूप बदलते  प्रतीत होते है ।

वर्ण क्या है? जाति क्या है? सीधे और सरल भाषा में अगर कहा जाय तो इसे कुछ ऐसे वर्णित किया जा सकता है ।
वैदिक काल में  श्रम विभाजन हेतु समाज को मोटे तौर पर  चार वर्णों में विभक्त किया गया था। ये चार वर्ण हैं : ब्राह्मण ,क्षत्रिय ,वैश्य एवं शूद्र।
मनुस्मृति के अनुशार “जन्मना जायते शूद्र:, संस्काराद् द्विज उच्यते ” अर्थात मनुष्य का जन्म  शूद्र के रूप में होता है तथा वह संस्कारों के ही बल पर द्विज यानि कि ब्राह्मण बनता है।
मनुस्मृति के ही अनुशार “विप्राणं ज्ञानतो ज्येष्ठम् क्षत्रियाणं तु वीर्यतः” अर्थात् ब्राह्मण की प्रतिष्ठा ज्ञान से है तथा क्षत्रिय की बल वीर्य से होती है । यानी जिसमे ज्ञान नहीं वह ब्राह्मण नहीं, जिसमे बल वीर्य नहीं वह क्षत्रिय कहलाने योग्य नहीं ।
हिंदू शास्त्र ऋग्वेद के 10 वें मंडल के पुरुषसूक्त के अनुसार ब्रह्मा के मुख से ब्राह्मण, भुजाओं से राजन्य (क्षत्रिय), जंघाओं से वैश्य और पैरों से शूद्र उत्पन्न हुए। यह एक लौकिक वर्णन है जिसकी विवेचना मनु आदि स्मृतिकारों ने अपने अपने ग्रंथों में विस्तार से किये हैं ।
आर्य समाज वर्ण ब्यवस्था पर आधारित रहा है । इस वर्णव्यवस्था में पुरोहित तथा अध्यापक वर्ग ब्राह्मण, शासक तथा सैनिक वर्ग क्षत्रिय, उत्पादक वर्ग वैश्य और शिल्पी एवं सेवक वर्ग शूद्रवर्ण कहलाया गया हैं।
जाति व्यक्ति के समाज, जिसमें जन्म हुआ हो, को कहते हैं। यह वर्ण से भिन्न है ।  हालाकि कि कई स्थानों पर वर्ण और जाति को एक दुसरे के रूप में भी प्रयुक्त किया जाता रहा है ।
जाति ब्यवस्था वर्ण से उपजी मानी जाती है । हालकी आर्यों के आगमन से पहले कुछ विद्वानों के मतानुशार जाति का प्रादुर्भाव अनार्यों या भारतीय जनजातिओं में पहले ही हो चूका था । इस मत के समर्थकों का कहना है कि ‘माया’, ‘जीवतत्ववाद’ ‘अभिनिषेध’ (टैबू) और जादू आदि की भावनाओं से प्रभावित विभिन्न समूह जब एक दूसरे के संपर्क में आए तो वे अपने विश्वास, संस्कृति, प्रजापति, धार्मिक कर्मकांड आदि के कारण एक दूसरे से पृथक्‌ बने रहे। और इस तरह जाति या एक पृथक समूह का निर्माण शुरू हुवा था । आर्यों के आगमन के बाद कालांतर में वर्ण ब्यवस्था के साथ जाति ब्यावाथा एक मूर्त रूप में सामने आई, जो आर्यों और अनार्यों की विभिन्न सामाजिक इकाइयों के आपसी मिलाप के परिणाम स्वरुप उत्पन्न हुई थी ।
जाति की उतपत्ति एक स्वायत्त ईकाई के रूप में धीरे धीरे सामने आई थी । परंपरागत रूप में जातियाँ स्वायत्त सामाजिक इकाइयाँ हैं जिनके अपने आचार तथा नियम हैं और जो एक दुसरे से अस्पस्टतः भिन्न हैं ।
भारतीय समाज जातीय सामाजिक इकाइयों से गठित और विभक्त है। श्रमविभाजनगत आनुवंशिक समूह भारतीय ग्राम की कृषिकेंद्रित व्यवस्था की विशेषता रही है। यहाँ की सामाजिक व्यवस्था में श्रमविभाजन संबंधी विशेषीकरण जीवन के सभी अंगों में अनुस्यूत है और आर्थिक कार्यों का ताना बाना इन्हीं आनुवंशिक समूहों से बनता है। यह जातीय समूह एक ओर तो अपने आंतरिक संगठन से संचालित तथा नियमित है और दूसरी ओर उत्पादन सेवाओं के आदान प्रदान और वस्तुओं के विनिमय द्वारा परस्पर संबद्ध हैं। समान पंमरागत पेशा या पेशे, समान धार्मिक विश्वास, प्रतीक सामाजिक और धार्मिक प्रथाएँ एवं व्यवहार, खानपान के नियम, जातीय अनुशासन और सजातीय विवाह इन जातीय समूहों की आंतरिक एकता को स्थिर तथा दृढ़ करते हैं। इसके अतिरिक्त पूरे समाज की दृष्टि में प्रत्येक जाति का सोपानवत्‌ सामाजिक संगठन में एक विशिष्ट स्थान तथा मर्यादा है जो इस सर्वमान्य धार्मिक विश्वास से पुष्ट है कि प्रत्येक मनुष्य की जाति तथा जातिगत धंधे दैवी विधान से निर्दिष्ट हैं और व्यापक सृष्टि के अन्य नियमों की भाँति प्रकृत तथा अटल हैं ।

जातियों की संख्या के बारे में अगर बात की जाय तो ये असीम प्रतीत होती हैं ।  श्रीधर केतकर के अनुसार केवल ब्राह्मणों की 800 से अधिक अंतर्विवाही जातियाँ हैं। और ब्लूमफील्ड का मत है कि ब्राह्मणों में ही दो हजार से अधिक भेद हैं। जो भी हो, मूर्त रूप में सन्‌ 1901 की जनगणना के अनुसार, जो जातिगणना की दृष्टि से अधिक शुद्ध मानी जाती है, भारत में उनकी संख्या 2378 है। यह गाड़ना मात्र एक वर्ण यानी की ब्राह्मण के बारे में है, अगर सभी वर्णों के बारे में चर्चा की जाय और सभी जातिओं के बारे में इनका डाटा एकत्रित किया जाय तो आप सोचिये यह गड़ना कहा पहुचेगी ।
वर्ण और जाति  के बारे में अध्यन से पता चलता है कि आदिकाल में भी जातिओं का प्रचलन था, लेकिन उस समय की जातियां अन्य नामों से जानी जाती थी ।  वेद और महाभारत काल के अनुशार मुख्य रूप से  देव, दैत्य, दानव, राक्षस, यक्ष, गंधर्व, किन्नर, नाग आदि जातियां थी । देवताओं को सुर तो दैत्यों को असुर कहा जाता था। देवताओं की अदिति, तो दैत्यों की दिति से उत्पत्ति हुई थी । दानवों की दनु से तो राक्षसों की सुरसा से, गंधर्वों की उत्पत्ति अरिष्टा से हुई थी । इसी तरह यक्ष, किन्नर, नाग आदि की उत्पत्ति मानी गई है।
प्रारंभ में सभी महाद्वीप आपस में एक-दूसरे से जुड़े हुए थे। इस जुड़ी हुई धरती को प्राचीन काल में 7 द्वीपों में बांटा गया था- जम्बू द्वीप, प्लक्ष द्वीप, शाल्मली द्वीप, कुश द्वीप, क्रौंच द्वीप, शाक द्वीप एवं पुष्कर द्वीप। इसमें से जम्बू द्वीप सभी के बीचोबीच स्थित है। इसमें जम्बू द्वीप में मानव का उत्थान और विकास हुआ। एक ही कुल और जाति का होने के बाद मानव भिन्न भिन्न जगहर पर रहकर हजारों जातियों में बंटता गया। पहले स्थानीय आधार पर जाति को संबोधित किया जाता था, जो आज भी काफी हद तक प्रचालन में है  जैसे कि पुरोहित, राजपूत, लोहार, तेली, कुर्मी. धोबी आदि कुछ उत्तरभारतीय हिन्दू जातियाँ हैं।
वर्ण और जाति  में से जाति की परिभाषा असंभव मानते हुए अनेक विद्वानों ने उसकी विशेषताओं का उल्लेख करना उत्तम समझा है। डॉ॰ जी. एस धुरिए के अनुसार जाति की दृष्टि से हिंदू समाज की छह विशेताएँ हैं –
(1) जातीय समूहों द्वारा समाज का खंडों में विभाजन,
(2) जातीय समूहों के बीच ऊँच नीच का प्राय: निश्चित तारतम्य,
(3) खानपान और सामाजिक व्यवहार संबंधी प्रतिबंध
(4) नागरिक जीवन तथा धर्म के विषय में विभिन्न समूहों की अनर्हताएँ तथा विशेषाधिकार,
(5) पेशे के चुनाव में पूर्ण स्वतंत्रता का अभाव और
(6) विवाह अपनी जाति के अंदर करने का नियम।
भारत में जाति चिरकालीन सामाजिक संस्था है। ई. ए. एच. ब्लंट के अनुसार जातिव्यवस्था इतनी परिवर्तनशील है इसका कोई भी स्वरूपवर्णन अधिक दिनों तक सही नहीं रहता। इसका विकास अब भी जारी है। नई जातियों तथा उपजातियों का प्रादुर्भाव होता रहता है और पुरानी रूढ़ियों का क्षय हो जाता है। नए मानव समूहों को ग्रहण करने की इसमें विलक्षण क्षमता रही है। कभी कभी किसी क्षेत्र की कोई संपूर्ण जाति या उसका एक अंग धार्मिक संस्कारों तथा सामाजिक रीतियों में ऊँची जातियों की नकल करके और शिक्षा तथा संपत्ति, सत्ता और जीविका आदि की दृष्टि से उन्नत होकर कालक्रम में अपनी मर्यादा को ऊँचा कर लेती है। इतिहास में अनेक ऐसे भी उदाहरण हैं जब छोटी या शूद्र जातियों के समूहों को राज्य की कृपा से ब्राह्मण तथा क्षत्रिय स्वीकार कर लिया गया। जे. विलसन और एच. एल. रोज के अनुसार राजपूताना, सिंघ और गुजरात के पोखराना या पुष्करण ब्राह्मण और उत्तर प्रदेश में उन्नाव जिले के आमताड़ा के पाठक और महावर राजपूत इसी प्रक्रिया से उच्च जातीय हो गए।

अन्य धर्मों में जाति ब्यवस्था

भारत में जाति सर्वव्यापी तत्व है। ईसाइयों, मुसलमानों, जैनों और सिखों में भी जातियाँ हैं और उनमें भी उच्च, निम्न तथा शुद्ध अशुद्ध जातियों का भेद विद्यमान है, फिर भी उनमें जाति का वैसा कठोर रूप और सूक्ष्म भेद प्रभेद नहीं है जैसा हिंदुओं में है। ईसा की 12 वीं शती में दक्षिण में वीर शैव संप्रदाय का उदय जाति के विरोध में हुआ था। किंतु कालक्रम में उसके अनुयायिओं की एक पृथक्‌ जाति बन गई जिसके अंदर स्वयं अनेक जातिभेद हैं। सिखों में भी जातीय समूह बने हुए हैं और यही दशा कबीरपंथियों की है। गुजरात की मुसलिम बोहरा जाति की मस्जिदों में यदि अन्य मुसलमान नमाज पढ़े तो वे स्थान को धोकर शुद्ध करते हैं। बिहार राज्य में सरकार ने 27 मुसलमान जातियों को पिछड़े वर्गो की सूची में रखा है। केरल के विभिन्न प्रकार के ईसाई वास्तव में जातीय समूह हो गए हैं। मुसलमानों और सिक्खों की भाँति यहाँ के ईसाइयों में अछूत समूह भी हैं जिनके गिरजाघर अलग हैं अथवा जिनके लिये सामान्य गिरजाघरों में पृथक्‌ स्थान निश्चित कर दिया गया है। किंतु मुसलमानों और सिखों के जातिभेद हिंदुओं के जातिभेद से अधिक मिलते जुलते हैं जिसका कारण यह हे कि हिंदू धर्मं के अनुयायी जब जब इस्लाम या सिख धर्म स्वीकार करते हें तो वहाँ भी अपने जातीय समूहों को बहुत कुछ सुरक्षित रखते हैं और इस प्रकार सिखों या मुसलमानों की एक पृथक्‌ जाति बन जाती है।
वर्ण और जाति के भेद को आज के परिदृश्य में प्रस्तुत करने की हमने एक छोटी सी कोशिश की है, आशा है उपर्युक्त विवेचना से पाठको को इसे समझने में कुछ मदद जरूर मिलेगी ।

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